नौवाँ सूक्त

 

पशुसत्तासे मनोमय सत्ताकी ओर आरोहणशील

भगवत्संकल्प

 

   [ इस सूक्तमें ऋषि भौतिक चेतनापर शुद्ध मानसिक चेतनाकी क्रियाके द्वारा भागवत संकल्पशक्तिके जन्मका वर्णन करता है । वह कहता है कि मनुष्यकी मर्त्य मनवाली साधारण अवस्थाका-भावनाप्रधान, स्नायविक और आवेगात्मक मनवाली अवस्थाका--लक्षण होता है कुटिल क्रियाएँ और नश्वर भोग । उस अवस्थामें भागवत संकल्पशक्तिकी क्रिया प्रच्छन्न रूपमें होती है । पीछे, हमारी सत्ताके तीसरे स्तरपर यह उभरकर प्रकट हो जाती है जहाँ इसे तपाकर मुक्ति और आध्यात्मिक विजयके लिए स्पष्ट और प्रभावशाली रूपमें गढ़ा जाता और तीक्ष्ण किया जाता है । यह हमारी सत्ताके सब जन्मों व स्तरोंको जानती है और यज्ञ तथा उसकी हवियोंको क्रमिक और सतत प्रगति द्वारा दिव्य लक्ष्य एवं धामकी ओर ले जाती है । ]

 

त्वामग्ने हविष्मन्तो देवं मर्तास ईळते ।

मन्ये त्वा जातवेदसं स हव्या वक्ष्यानुषक् ।।

 

(अग्ने) हे भागवत संकल्पशक्ति ! (हविष्मन्त: मर्तास:) हविको लिये हुए मर्त्य मनुष्य (त्वां देवम् ईळते) तुझ देवकी खोज करते हैं । (त्वा जातवेदसं मन्ये) मैं तेरा ध्यान करता हूँ, जो तू समस्त उत्पन्न पदार्थों व जन्मोंका ज्ञाता है । (स:) वह तू (हव्या आनुषक् वक्षि) हमारी हवियोंको निरन्तर लक्ष्य तक ले जाता है ।

 

अग्निर्होता दास्वत: क्षयस्थ वृक्तबर्हिषः ।

सं यज्ञासश्चरन्ति यं सं वाजास: श्रवस्यव: ।।

 

(अग्नि:) संकल्परूप अग्नि (होता) उस मनुष्यके लिये हविका पुरोहित है जो (दास्वत:) समर्पण करता है, (वृक्तबर्हिष:) यज्ञका आसन तैयार करता है और उसके (क्षयस्य) घरको प्राप्त करता है । क्योंकि (यं

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यज्ञास: सं चरन्ति) उसीमें यज्ञके हमारे कार्य एकत्र होते हैं और उसीमें (श्रवस्यव: वाजास:) हमारी सत्यश्रुतियोंकी समृद्धियां (सं चरन्ति) एकत्र होती है ।

उत स्म यं शिशु यथा नवं जनिष्टारणी ।

धर्तारं मानुषीणां विशामग्निं स्वध्वरम् ।।

 

(उत स्म) और यह भी सत्य है कि (अरणी)1 दो अरणियोंने, दो क्रियाओंने (यम्) जिस तुझको (यथा नवं शिशुं) नवजात शिशुकी तरह उत्पन्न किया है, वह तू (मानुषीणां विशाम् धर्तारम्) मानव प्राणियोंको धारण करनेवाला और (सु-अध्वरम् अग्निम्) एक ऐसा संकल्पबल है

जो यज्ञका ठीक-ठीक नेतृत्व करता है ।

उत स्म दुर्गृभीयसे पुत्रो न ह्वार्याणाम् । 

पुरू यो दग्धासि वनाऽग्ने पशुर्न यवसे ।।

 

(अपने) हे अग्निदेव ! (उत स्म) यह भी सत्य है कि तू (ह्वार्याणाम् पुत्र: न) कुटिलताओं2के पुत्रकी तरह (दुर्गृभीयसे) कठिनाईसे पकड़में आता है, (य:) जब तू (यवसे पशु: न) अपनी चरागाहमें अन्न खानेवाले पशुकी तरह (पुरु वना दग्धा असि) आनन्दरूपी अनेक वनस्पतियोंको निगल जाता है ।

अध स्म यस्यार्चय: सम्यक् संयन्ति धूमिन: ।

यदीमह त्रितो दिव्युप ध्मातेव धमति शिशीते ध्मातरी यथा ।।

 

(अध स्म) परंतु पीछे (यत्) जब (यस्य अर्चय:) उस अग्निकी किरणें (धूमिन:) अपने धूम्रयुक्त आवेगके साथ (सम्यक् संयन्ति) पूरी तरह आपसमें

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दो अरणियां जिनसे आग रगड़कर निकाली जाती है । 'अरणी' शब्द

का अर्थ क्रियाएँ भी हो सकता है और यह 'अर्य' शब्दसे सम्बन्धित

है । लोक व पृथिवी दो अरणियाँ है जो अग्नि उत्पन्न करती

हैं, द्युलोक है उसका पिता और पृथिवी उसकी माता ।

2. 'ह्वार्याणाम'का शाब्दिक अर्थ है-कुटिल वस्तुओके । वे कुटिल वस्तुएँ

   संभवत: हमोरी सत्ताकी वे सात 'नदियाँ या गतिधाराएँ हैं जो हमारे

   मर्त्य जीवनकी बाधाओंमेंसे चक्कर काटती हुई गुजरती हैं ।

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आरोहणशील भगवत्संकल्प

 

मिलती हैं, (अह ईम्) अहो, तब उसे (त्रित:) वह तीसरा आत्मा1 (दिवि) हमारे द्युलोकमें (उप धमति) ऐसे घड़ता है (ध्माता-इव) जैसे लोहार अपने लोहारखानेमें वस्तुओंको घडता है; (यथा ध्मातरि शिशीते) मानों वह आत्मारूपी लोहार अपने ही अन्दर उसे तेज करके एक तीक्ष्ण अस्त्र बना डालता है ।2

तवाहमग्न ऊतिभिर्मित्रस्य च प्रशस्तिभि: ।

द्वेषोयुतो न दुरिता तुर्याम मर्त्यानाम् ।।

 

(अग्ने) हे संकल्पशक्ति ! (तव ऊतिभि:) तेरे विस्तारोंसे (मित्रस्य प्रशस्तिभि: च) और प्रेमके अधिपति मित्रकी तेरे द्वारा की हुई अभिव्यक्तियोंसे मैं ही नहीं, (न:) हम सब, (द्वेषोयुत:) उन मनुष्योंकी तरह जो शत्रुओंसे आक्रान्त और विरोधोंसे घिरे हुए हैं, (मर्त्यानां दुरिता) मर्त्योंकी विध्नबाधाओं एवं अवरोधोमेंसे (तुर्याम) पार हों जाएँ ।

तं नो अग्ने अभी नरो रयिं सहस्व आ भर ।

स क्षेपयत् स पोषयद् भुवद् वाजस्य सातय उतैधि पृत्सु नो वृधे ।।

 

(अग्ने सहस्व) हे संकल्पशक्ति ! हे बलशाली देव ! (न: नर: अभि) हम मानवी आत्माओंके लिये (तं रयिम् आ भर) उस परम आनन्दको ले आओ । (स क्षेपयत्) वह हमें हमारे मार्गमें तीव्र वेगसे ऽआगे बढ़ाये । (स पोषयत्) वह हमारा पोषण और संवर्धन करे, (वाजस्य सातये भुवत्) ऐश्वर्यकी विजयके लिये हमारे अन्दर रहे । (उत न: पृत्सु एधि) और हमारे संग्रामोंमें तुम हमारे साथ अग्रसर हो, (न: वृधे) ताकि हमारी वृद्धि हो ।

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1. त्रित आप्त्य, तीसरा या त्रिविध, स्पष्टत: ही, मानसिक स्तरका पुरुष ।

   परम्पराके अनुसार वह एक ऋषि है और उसके दो साथी हैं जिनके

   अर्थगर्भित नाम हैं--एक, अर्थात् एक या अकेला, द्वित अर्थात् दूसरा या

   दोहरा । वे हैं भौतिक और प्राणिक या क्रियाशील चेतनाके पुरुष ।

   वेदमें वह (त्रित) वस्तुत: एक देव प्रतीत होता है ।

2. मूल मन्त्र अपनी शैली और अभिप्रायमें बहुत संक्षिप्त और संहत है ।

  वेदकी वाक्यरचना और पदावलिमे सामान्यत: जो अर्थगौरव पाया जाता

  है, उससे भी परेका अर्थगौरव इस मंत्रमें निहित है । ''ओह ! जब

  त्रित उसे द्युलोकमें लोहारकी तरह धौंकनीमें तपाकर तैयार करता

  है, मानो धौंकनीके द्वारा तेज करता हैं ।'' इंगलिशमें हमें इस अर्थको

  स्पष्ट करनेके लिये विस्तार करना पड़ता है ।

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